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गुरुवार, 10 नवंबर 2011

ये सच है!

ये सच है कि,
राष्ट्र कल्याण में जो लगे हैं, हम उन्हें बदनाम करते हैं|
अपेक्षा करने वाले हि उपेक्षा के भाव सहते हैं|
अब सेना के ऊपर पत्थर पड़ते हैं|
और दहशतगर्दों पे फुल बरसते हैं|
पत्थरबाजों  को सरकारी इनाम मिलते हैं|
दिवंगत सैनिकों के परिजन को गर्व करने के समान मिलते हैं|


आतंकवादी मानवता पर हमले करते हैं|
मानवाधिकार संगठन आतंकियों कि रक्षा करते हैं|
ओसामा जैसे आतंकी  भारत में ओसामा जी कहलाते हैं|
नेता मन्त्री भगोड़े कि मौत को राष्ट्र कि अपूरणीय क्षति बतलाते हैं|
चोर और धनवान भारत का धन विदेशों में जमा करते हैं|
ऋण के बिना हमारे युवा और उधमी बेकारी में पलते हैं|



मरने से पहले ही नेताओं के स्मारक बनते हैं|
अब इंसान,  इंसानों के चालीसे पढते हैं|  
अब भी शैतान नही भागा हलांकि हर साल उस पर पत्थर पड़ते हैं|

हम खुदा को खून पीने वाला पिचास समझते हैं|
पूजा में लगे लडके मुन्नी कि माला जपते हैं|
उसूलों पे चलने वाले ही उलझन में रहते हैं| 
 



लाख गुण हो पर बबूल के पौध कहाँ लगते हैं|


गमले के पौधे बहुत तेज पनपते  हैं|
गुणवान खुद उगते और आगे बढते हैं|
खेलने कि उम्र में बच्चे खिलौने बेचते हैं|
जो जल्दी पनपते हैं, वो जल्दी झुलसते हैं| 
छात्रवृति के पैसे का उपयोग छात्र शराब में करते हैं|







जो हमारे पैर पड़ते हैं वो ही हमारी गर्दन जकड़ते हैं|
लोकतंत्र में भी हम कुछ को युवराज समझते हैं|
अपराधी राजनीती और राजनीतिज्ञ अपराध करते हैं|
जिन्हें  हम संसद में भेजते हैं वो तिहाड़ में मिलते हैं|
 मन्थाराओं के मन्त्रनाओं से मंत्री जी चलते हैं|
कुशल राजनीतिज्ञ कुटिलता से शासन करते हैं|




बिजली के दौर में भी लालटेनों के कारखाने खुलते हैं|
अस्पतालों  के फाटक पर ताबूत मिलते हैं| 
जनता के नौकर जनता पे राज करते हैं|
चोर लुटेरे मुखिया और सरपंच बनते हैं|
चोर, लुटेरे भी अपना कुछ राजनितिक वर्चस्व रखते हैं|
और इस नाते गुंडे भी रात को गुड नाईट कहते हैं|





कुछ रक्तचाप से तो कुछ रक्ताभाव में दम तोड़ते हैं|
कुछ मोटापे से तो कुछ भूखों मरते हैं|
अन्नदाता ही भूख से आत्महत्या करते हैं|
अनुदान पर खाने वाले मंहगाई पे चिंतन करते हैं|
गधे सबसे ज्यादा मेहनत करते हैं|
मेहनत करने वाले कि खबर भगवान रखते हैं|




बाढ़ से त्रस्त इलाकों में सूखे पड़ते हैं|
बिजली से सडकें रौशन और घरों में अँधेरे रहते हैं|
महानगरों में भी किल्लते और जिल्लते सहने पड़ते हैं|
पानी के कमी के बावजूद यहाँ हर रोज लोग बढते हैं|
गंगा के बच्चे बाल्टी पकड़ते हैं, समुद्र में सावन बरसते हैं|
कुछ  बच्चे किताब और कुछ कचड़े का थैला पकड़ते हैं|

 


दूध पीने वालों को लोग बच्चा समझते हैं|
लाख गुण हो, दूध से ज्यादा शराब बिकते हैं|
शराब के कर से हम विकास करते हैं|
वर्जित शराब को विकसित फैशन समझते हैं|
गोरा करने के क्रीम बनाने वाले विश्व सुन्दरी बनाते हैं|
गेंद से ज्यादा स्त्रियाँ उछले, तब उसे भद्रजनों का खेल कहते हैं|



हम आरक्षण से सामाजिक नही आर्थिक विषमता दूर करते हैं|
बैठकों में सहमत रहने वाले मन में शत्रु सा वैर रखते हैं|
नेता दुरी बढाकर समाजिक असमानता दूर करते हैं|
जो  भगवा पहनते हैं उन्हें हम आतंकी समझते हैं|
बिगबोस में भगवाधारी अग्निवेश रहते हैं|
उसूल वाले से कई परेशान रहते हैं|



भ्रष्टाचारी, भ्रष्टाचार पर चिंता जताते हैं|
और वे  इसे देश की ज्वलंत समस्या बताते हैं|
वृद्धा पेंशन के पैसे युवा अधिकारी हड़पते हैं|
बड़े हाकिम घुस को बाजिव समझते हैं|
हम भारतवासी भ्रस्टाचार सहते हैं|
विरोध  में बाबा और अन्ना भूखों रहते हैं|





अखबार समाचारों के नही इश्तिहारों के सहारे चलते हैं|
सच का कफन ओढ़ युवा खबर से ज्यादा प्रचार ढूंढते हैं|
अखबारें,  खबरों को गमगीन और प्रचारों को रंगीन रखते हैं|
कलाकार कहानी के लिए अश्लील प्रदर्शन करते हैं|
और ऐसे बिकाऊ को हम अपना नायक समझते हैं|
ये भड़काऊ ब्यान को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समझते हैं|




माँ-पिता के आपने महत्व हैं, ये अब लोग कहाँ समझते हैं|
कई पिता, पुत्र के रहमोकरम पर पलते हैं|
माँ बेटे के रिश्ते को बेटे अब बोझ कहते हैं|
सम्बन्धों के महत्व आभूषण बताते हैं|
बैंक ऋण लेकर हम घर बनाते हैं|
चिंताओं  को कल पर टालते जाते हैं|


आप  सभी को हम अब जय हिंद! कहते हैं|

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

हर हर गंगे! जय जय गंगे!


हों दर्शन तेरे हर प्रभात 
ऐसा हि भाग्य हो मेरा मात 
माँ मन हो तुम सा निर्मल
मैं बनू तुम्हारी धारों सा...
मैं भी बहूँ कल कल .
मैं भी बनू चंचल..
हर हर गंगे जय जय गंगे!

तू मोक्ष दायिनी जगतमात
सानिध्य तुम्हारा हो सदा साथ 
स्नान, दान, पूजा, तर्पण
मैं नित्य करूँ तेरे हि घाट..
तू करती उद्धार हर पापी का 
आते पापी पुण्यी सब एक साथ  
हर हर गंगे! जय जय गंगे!

अन्नदाता माँ तेरे दोनों पाट
तू बुझाती है माँ सबके प्यास
खुले हुए माँ तेरे दोनों  हांथ 
हम कर रहे दोहन तेरा शोषण
कर रहा हूँ तुझ पर कुठाराघात
फिर भी तुझे पूजूं पाने को आशीर्वाद 
हर हर गंगे! जय जय गंगे!

तू सबको करती है माँ पवित्र..
असन्तुष्ट, दुष्ट कर रहे तुझे गंदा
कुछ बेचते रेत,  माटी तेरा
कुछ करते तेरे जल का धंधा..
मेरे अहोभाग्य,
मेरी जन्म भूमि माँ तेरे पास.
हर हर गंगे! जय जय गंगे!

कुछ ने बाँध बना कर बाँधा तुम्हे 
कुछ पुल बना कर भूल गए 
जो नगर तुम से फुले फले,
उन्ही ने बांधे तेरे गले 
पर तू भी मानव स्वार्थ को समझ गयी 
मेरे बस्ती से भी माँ अब तू कोशो दूर गयी  
हर हर गंगे! जय जय गंगे!
हर हर गंगे! जय जय गंगे!





मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

मिट जाए सदा ये अंधियारा, कुछ ऐसा चारो ओर करो!















मिट  जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो ओर करो!
हर  के मन में उल्लास भरे!
जीवन में जोश उमड़ पड़े!
बच्चो की मन में उत्सव हो,
निराशाएं  ना फिर से उत्पन्न हों,
तुम ऐसा कुछ प्रकाश भरो!
मिट जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो ओर करो!


माना  की आलू, गेंहू, तेल सब मंहगे हैं,
डीजल, बिजली मंहगी हो गई,
पटाखों  से होता प्रदूषण,
बहुत मंहगे हैं आभूषण,
मिठाइयों  के दाम चढ़े हैं,
कपड़ों  के भी दाम बढे हैं,
प्रशासन कहता है कम शोर करो|

क्या हर रोज दिवाली आती है?
क्या हर रोज मनाते हैं उत्सव?
क्या  एक दिन में ही इतना शोर?
इस उत्सव के मौसम में 
अब  और ना कोई विरोध करो|
मिट जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो ओर करो!


यह विजय पर्व है, 
प्रकाशोत्सव है|
जन जन खुश है हर ओर धूम,
बच्चे हैं खुश हर लोग मग्न|
भूख, गरीबी, बीमारी, विपन्नता, बेकारी,
समाज की अब हर खराबी दूर करो!
मिट जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो और करो!

ना  खरीदना कम पटाखे,
ना कम हो कहीं धमाके,
हर जगह हो धूम धड़ाके,
मिलना  गले सभी से हर किसी के घर जाके,
निराशाओं, हताशाओं, घबराहट, बेचैनी को,
अब सबके मन से दूर करो!
मिट जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो और करो!

समय  सीमा का भी हो ख्याल,
सावधानी भी हो भरपूर,
बच्चों  को रखना नही दूर,
पूजा  अर्चना भी हो जरूर!
जुआ ताश जैसी कुरीति को 
अब समाज से दूर करो! 
मिट जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो ओर करो!


संग अपने  टोले- मोहल्ले के,
ना उंच- नीच, ना भेदभाव|
ना धनी-निर्धन, ना आम-खास,
विपन्न- सम्पन्न सब एक साथ|
मिठाई चाहे मिले हर किसी को आधा,
पर  दीवाली हो संग लोगों के ज्यादा|
अब हर मन के अंधियारे को
दीपक के प्रकाश से दूर करो!
मिट जाए सदा ये अंधियारा,
कुछ ऐसा चारो ओर करो!



दीवाली की खुशियाँ सबके साथ बाँटें!
सावधानी पूर्वक आनंद मनाएं!
आप सभी को प्रकाश पर्व दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!





गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

हम इन्कलाब की बात करेंगे!


वे  जो मजबूर  हैं,
जिनकी आदत है,
जिनकी आस्था है,
जिनकी इबादत है,
गिरगिटों कि तरह रंग बदलना|
कभी समर्थन, कभी विरोध की बात करेंगे|

हमारे इरादे मजबूत हैं,
राष्ट्र हमारे लिए सर्वोपरि है,
हम भारत के बच्चे
सीधा... सच कहने वाले..
हम निकल कर सड़कों पर इन्कलाब कि बात करंगे|

जिन्हें जमीन दिखती हो, भारत भू|
उनके लिए आसान है,
भारत माता का गौरव गरिमा भूल जाना,
दबाब और लालचों में झुक जाना,
कायर बुजदिल हमेशा देश बांटने की हि बात करेंगे|

हम हिमालय को भाल,
हिंद महासागर को पाद समझते हैं,
हम कश्मीर को धरती का स्वर्ग,
अरुणाचल को सुप्रभात समझते हैं,
हम कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत के विशालता की बात करेंगे|

सियार जैसे होशियार लोगों के लिए आसान है,
अपनी कायरता को बुद्धिमानी का रूप दे देना,
आजादी से आजादी को खतरे में डाल देना,
संघर्ष के तरीकों को सही गलत कहने वाले..
वतन के खिलाफत की बात करेंगे|

हम सिंहों के दांत गिनने वाले,
हम मंजिल को पाने चलते हैं,
हम अशफाक - भगत के बच्चे हैं,
हम सही गलत में नही पड़ते हैं|
हम इन कायर , बुजदिल, दोहरों से आज बगावत की बात करंगे|



रविवार, 14 अगस्त 2011

पत्थरों का दर्द

अरे! सुनो, इस पत्थर के शहर में हम भी रहते हैं|

पत्थर अपना दुःख मुझसे कहते हैं|

वो टूट कर बिखरते रहें हैं...सदियों से|

किसी पे नही थोपी उसने अपनी कहानी,

पत्थर तो अपना दुःख खुद ही सहते हैं,

और हम हैं की खामोश लोगों को पत्थर कहते हैं|

दासता या आजदी

दासता से दासता तक ही अपनी दास्तां है दोस्तों...
पता नही कब, कौन, कैसे आजाद हो गया...?


रविवार, 19 जून 2011

शर्म!

शर्म भी आ जाए तो अब आँखें शर्मसार नही होती|
इन्हें पता है,कि अब इस हमाम में सब नंगे हैं|


शुक्रवार, 17 जून 2011

मैं तो पहले से पागल हूँ!

मुझे आवारा, दीवाना, मस्ताना कहने वालों सुनो,
मुझे तुम्हारी इन बातों से कोई फर्क नही पडता|
क्यूंकि मैं पहले से पागल हूँ|


मंगलवार, 14 जून 2011

ये ख़ास बात हम से पूछो...!

कब? क्यूँ? और कैसे? कोई आम से खास हो जाता है ये हम से पूछो.....!
क्यूंकि हमने रातों में रिश्तों के बीच जागकर, तारीख बदलते देखा है ...|




रविवार, 29 मई 2011

एहसास


जब तुम दूर होती हो तो पास का एह्सास होता है|
तेरे पास रहने पर दुर होने का डर लगता है|


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

जब से चैन बेच कर सोता हूँ.

पहले घोड़े बेचकर सोता था|
आजकल चैन बेचकर सोता हूँ|
पहले ही शायद अच्छा था|
हर रोज घोड़े को बेचता रहता था|
जब से चैन बेच कर सोता हूँ|
हर सुबह जागते ही रोता हूँ|

हर ओर सुबह से भागम भाग,
इंसानियत की हत्या सरेशाम|
मन सोच सोच घबराता है|
हर रात बेचैन हो जाता हूँ|
जब से चैन बेच कर सोता हूँ|
हर सुबह जागते ही रोता हूँ|

अपने ही बंधु हैं सने हुए,
इस भाग दौड़ में लगे हुए|
जब अपने नजदीक नजरे दौडाता हू|
मैं खुद शर्म सार हो जाता हूँ|
जब से चैन बेच कर सोता हूँ|
हर सुबह जागते ही रोता हूँ|

अब हर बात में झूठ झूठ,
हर रस्ते पे मची है लुट लुट|
इस दुनिया में शायद मैं भी रहता हूँ,
खुद लुटा हूँ पर लोगों को जगाता रहता हूँ|
जब से चैन बेच कर सोता हूँ|
हर सुबह जागते ही रोता हूँ|

राही रास्तों से घबराता है,
लुटेरों पे विश्बास जताता है|
भ्रष्टों के पास समृद्धि है,
फिर भी ईश्वर पर झूठा विश्वास जताता हूँ|
जब से चैन बेच कर सोता हूँ|
हर सुबह जागते ही रोता हूँ|