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गुरुवार, 18 नवंबर 2010

शहर के लोग

पता नहीं इन शहरों में लोग कितने होते हैं|
पता नहीं इन शहरों में लोग कब खाते कब सोते हैं|

पता नहीं इन शहरों में कितने बुन पाते हैं, अपना आशियाना|
और कितने अपना घर खोते हैं|

पता नही कितने प्रतिशत रहते हैं इंसान यहाँ पे|
और कितने जालिम होते हैं|

पता नही कितने करते भागम भाग यहाँ पे |
और कितने चैन से सोते हैं|

पता नही कितने हंसते हैं झूठी हंसी यहाँ |
और कितने झूठा दुखड़ा रोते हैं|

पता नही कितने रिश्ते साथ निभाते जीवन भर|
कितने तार - तार हो बेगाने हो जाते हैं|

पता नही कितने पाते हैं सबकुछ यहाँ पे |
और कितने सबकुछ अपना खोते हैं|

पता नहीं इनके एक चेहरे में,
कितने चहरे होते हैं|

लगता है इन लोगों के कुछ दूसरे किस्सें भी होते हैं|
पता नही ...........