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रविवार, 14 अगस्त 2011

पत्थरों का दर्द

अरे! सुनो, इस पत्थर के शहर में हम भी रहते हैं|

पत्थर अपना दुःख मुझसे कहते हैं|

वो टूट कर बिखरते रहें हैं...सदियों से|

किसी पे नही थोपी उसने अपनी कहानी,

पत्थर तो अपना दुःख खुद ही सहते हैं,

और हम हैं की खामोश लोगों को पत्थर कहते हैं|

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    स्वतन्त्रता की 65वीं वर्षगाँठ पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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  2. आपको भी बहुत बहुत शुभकामनायें!

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  3. पत्थर तो अपना दुःख खुद ही सहते हैं,

    और हम हैं की खामोश लोगों को पत्थर कहते हैं|

    Vicharniy Panktiyan.... Bahut Badhiya

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  4. आपकि कविता मे करूणा भी है अडिग रहने क संदेश भी आपको मै मेरी ओर से साधुवादआपकि कविता मे करूणा भी है अडिग रहने क संदेश भी आपको मै मेरी ओर से साधुवाद

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  5. सच में यह पत्थर ...किससे कहें अपना दर्द और आखिर पत्थर की इस वस्ति में कोण किसकी सुनता है ....!

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  6. पत्थरों को सजीव कर दिया.गूढ़ अर्थ लिये अच्छी रचना.

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  7. वाह ! ख़ूब कहा आपने -
    पत्थर तो अपना दुःख खुद ही सहते हैं


    आपको नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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