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रविवार, 14 अगस्त 2011

पत्थरों का दर्द

अरे! सुनो, इस पत्थर के शहर में हम भी रहते हैं|

पत्थर अपना दुःख मुझसे कहते हैं|

वो टूट कर बिखरते रहें हैं...सदियों से|

किसी पे नही थोपी उसने अपनी कहानी,

पत्थर तो अपना दुःख खुद ही सहते हैं,

और हम हैं की खामोश लोगों को पत्थर कहते हैं|

दासता या आजदी

दासता से दासता तक ही अपनी दास्तां है दोस्तों...
पता नही कब, कौन, कैसे आजाद हो गया...?