पता नहीं इन शहरों में लोग कितने होते हैं|
पता नहीं इन शहरों में लोग कब खाते कब सोते हैं|
पता नहीं इन शहरों में कितने बुन पाते हैं, अपना आशियाना|
और कितने अपना घर खोते हैं|
पता नही कितने प्रतिशत रहते हैं इंसान यहाँ पे|
और कितने जालिम होते हैं|
पता नही कितने करते भागम भाग यहाँ पे |
और कितने चैन से सोते हैं|
पता नही कितने हंसते हैं झूठी हंसी यहाँ |
और कितने झूठा दुखड़ा रोते हैं|
पता नही कितने रिश्ते साथ निभाते जीवन भर|
कितने तार - तार हो बेगाने हो जाते हैं|
पता नही कितने पाते हैं सबकुछ यहाँ पे |
और कितने सबकुछ अपना खोते हैं|
पता नहीं इनके एक चेहरे में,
कितने चहरे होते हैं|
लगता है इन लोगों के कुछ दूसरे किस्सें भी होते हैं|
पता नही ...........
सितम्बर के दौरान फरीदाबाद और बल्लभगढ़ में हुए अनुभव के सन्दर्भ में
जवाब देंहटाएंsatya kaha aapne.
जवाब देंहटाएंमेरी कविता "क्यों लिखूं..? " पढने और अपनी टिपण्णी देने के लिए आपको धन्यवाद मित्र.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा, खूब
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